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(१००) सुनो जिया ये सतगुरु की बातें, हित कहत दयाल दया मैं। टेक॥ यह तन आन अचेतन है तू, चेतन मिलत न यातें। तदपि पिछान एक आतमको, तजत न हठ शठ-ताते॥१॥सुनो.॥ चहुंगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खातें। तदपि न तजत न रजत अभागै, दृगव्रतबुद्धिसुधा ॥२॥सुनो. ।। मात तात सुत भ्रात स्वजन तुझ, साथी स्वारथ ना । तू इन काज साज गृहको सब, ज्ञानादिक मत घातै॥३॥सुनो.॥ तन धन भोग संजोग सुपनसम, वार न लगत बिलातें। ममत न कर भ्रम तज तू भ्राता, अनुभव-जान कलातें॥४॥सुनो. ।। दुर्लभ नर-भव सुथल सुकुल है, जिन उपदेश लहा तैं। 'दौल' तजो मनसौं ममता ज्यों, निवडो द्वंद दशातें ॥५॥ सुनो.॥
अरे जिया ! तू सत्गुरु का उपदेश सुन; वे दयालु, करुणाकर तेरे हित के लिए कहते हैं।
यह देह अचेतन है और तू चेतन है, यह अन्य है, तुझसे भिन्न है इसलिए इस देह से तेरा मेल नहीं है तथापि तू इसमें घुल-मिल रहा है, एकाकार हो रहा है । तू मूर्ख अपनी हठ छोड़कर अपने आत्मा को पहचान !
तू मोहवश चारों गतियों में भ्रमण करता हुआ, इंद्रियविषयों के भोगरूपी महाविष का पान कर रहा है। फिर भी तू उसको नहीं छोड़ता। हे भाग्यहीन, उनमें तू रंजायमान (तृप्त, प्रसन्न) मत हो; दर्शन, ज्ञान व व्रतरूपी अमृत का पान कर।
माता-पिता, पुत्र-भाई और तेरे कुटुम्बीजन-सब ही स्वारथ के संबंधी है; तू इनके लिए घर को सुव्यवस्थित व सुसज्जित बनाने में लगकर अपने ज्ञान आदि का नाश मत कर।
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दौलत भजन सौरभ