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(१४) मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी॥टेक। भोग भुजंगभोगसम जानो, जिन इनसे रति जोरी। ते अनन्त भव भीम भरे दुख, परे अधोगति पोरी,
बँधे दृढ़ पातक डोरी ॥१॥ इनको त्याग विरागी जे जन, भये ज्ञानवृषधोरी। तिन सुख लह्यौ अचल अविनाशी, भवफांसी दई तोरी,
रमै तिन संग शिवगोरी॥२॥ भोगनकी अभिलाष हरनको, त्रिजगसंपदा थोरी। यात ज्ञानानंद 'दौल' अब, पियौ पियूष कटोरी,
मिटै भवव्याधि कठोरी ॥३॥
अरे जीव ! तू मेरी यह सीख मान ले; विषय-भोगों की ओर मत झुक, उस ओर रुचि न लगा।
ये इंद्रियविषय भयानक नाग के समान विषैले हैं, इनमें रत मत हो, इनमें मत राच अर्थात् इनमें रुचि न कर ! इनके कारण अनन्त भव/काल तक भारी दु:ख सहे हैं और अधोगति में जाकर डूबता रहा है, पाप की डोरी की पकड़ मजबूत होकर कसती रही है अर्थात् कर्मबंधन दृढ़ होते रहे हैं।
इन विषय-कषायों को छोड़ककर जो ज्ञानरूपी धर्म के धारी हो गए हैं उनको कभी विनाश को प्राप्त न होनेवाले व निरंतर बने रहनेवाले स्थायी सुन की प्राप्ति हुई है और वे भव-भ्रमण के फंदे को तोड़कर मोक्ष लक्ष्मी के साथ रमण करने लगे अर्थात् मोक्षगामी हुए।
भोगों की चाह को पूरी करने के लिए तीन लोक की संपत्ति भी थोड़ी है। इस कारण दौलतराम कहते हैं कि अब धर्मरूपी अमृत की कटोरी पीओ, जिससे भव भ्रमण की कठिन बाधा मिट जाए।
दौलत भजन सौरभ
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