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(९९) लखो जी या जिय भोरे की बातें, नित करत अहित हित घातें ॥टेक।। जिन गनधर मुनि देशवृती समकिती सुखी नित जातें। सो पय ज्ञान न पान करत न, अघात विषयविष खाते॥१॥ लखो.।। दुखस्वरूप दुखफलद जलदसम, टिकत न छिनक बिलातैं। तजत न जगत भजत पतित नित, रचत न फिरत तहातै॥२॥ लखो.॥ देह-गेह-धन-नेह ठान अति, अघ संचत दिनरातें। कुगति विपतिफलकी न भीत, निश्चित प्रमाददशा ॥३॥लखो.॥ कबहुं । होय आमनो घर, अध्यादि पृथक चतुधातें। पै अपनाय लहत दुख शठ नभै, - हतन चलावत लात॥४॥लखो.॥ शिवगृहद्वार सार नरभव यह, लहि दश दुर्लभता । खोवत ज्यौं मनि काग उड़ावत, रोवत रंकपनातें ॥५॥लखो.॥ चिदानन्द निर्द्वद स्वपद तज, अपद विपद-पद रातें। कहत-सुशिखगुरु गहत नहीं उर, चहत न सुख समतात।।६॥ लखो.।। जैनवैन सुन भवि बहु भव हर, छूटे द्वंददशातें। तिनकी सुकथा सुनत न मुनत न, आतम-बोधकलात् ।।७॥लखो.॥ जे जन समुझि ज्ञानदृगचारित, पावन पयवर्षात । तापविमोह हत्यो तिनको जस, 'दौल' त्रिभोन विख्याते।। ८॥ लखो.।।
हे जीव ! देखो, इस भोले-मूर्ख की बात देखो, यह अपने हित की हानि कर रहा है, अपना अहित कर रहा है।
जिनेन्द्रदेव, गणधर, मुनि, देशव्रती क्षुल्लक-ऐलक सम्यक्दर्शन धारण करके, समतामय होकर नित्य सुखी होते हैं। पर यह जीव उस ज्ञानरूपी अमृत
दौलत भजन सौरभ
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