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गणधरों में श्रेष्ठ, केवली अरहंत ने बताया है कि एक अन्तर्मुहूर्त काल में ६६,३३६ बार जन्मा व मृत्यु को प्राप्त हुआ।
यों जहाँ मनंतकाल तक पण .. पहार, फिर वहाँ से निकला और इसप्रकार निगोद से निकलकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति में शरीर धारण करता रहा।
फिर वहाँ से निकल कर, कुंथु हुआ, कानमच्छ हुआ। जल में, थल में, नभ में - तिर्यंचों में, खोटे मनुष्यों में, नरक में, व्यंतर आदि में जन्म लिया और मरा।
अब अच्छा स्थान-क्षेत्र, अच्छा कुल, सत्संग और तीक्ष्ण विवेक बुद्धि भी पाई है। दौलतराम कहते हैं कि तीन रत्न अर्थात् रत्नत्रय को साधकर उस परमशान्त अनुपम पद को प्राप्त करो।
अनुधरीसु (अनधरीर) - निराश्रित, निराधार; कुंथु - दो इंद्रिय कीड़ा लाध = प्राप्त करना, अनुत्तरा = मौन, शान्त ।
दौलत भजन सौरभ