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(८१) चिदरायगुन सुनो मुनो प्रशस्त गुरुगिरा। समस्त तज विभाव, हो स्वकीयमें थिरा॥ चिदरायगुन.॥ मिजभाधके लखाबजन, माधि में परा। जामन मरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा॥१॥चिदरायगुन.॥ फिर सादि औ अनादि दो, निगोदमें परा। तहं अंकके असंख्यभाग, ज्ञान ऊबरा॥२॥चिदरायगुन. ।। तहां भव अन्तरमुहूर्तके कहे गनेश्वरा । छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्म धर मरा ॥३॥ चिदरायगुन. ॥ यौं वशि अनंतकाल फिर, तहातै नीसरा। भूजल अनिल अनल प्रतेक, तरुमें तन धरा ।। ४॥चिदरायगुन.॥ अनुंधरीसु कुंथु काणमच्छ अवतरा। जल थल खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा॥५॥ चिदरायगुन.|| अबके सुथल सुकुल सुसंग, बोध लहि खरा। 'दौलत' त्रिरत साध लाध, पद अनुत्तरा ।।६॥चिदरायगुन.॥
हे चिद्रूप! हे चेतन राजा ! सत्गुरु की प्रमाणिक वाणी सुनी और उसका मनन करो! सब विभाव छोड़कर निज भाव में, स्व-भाव में स्थिर हो जाओ, स्थित हो जाओ, ठहर जाओ।
निज स्वरूप के चिन्तन के अभाव में, मैं भव-समुद्र में पड़ा हुआ हूँ । जन्ममरण और बुढ़ापे के त्रिदोषों की आग में जलता रहा हूँ।
फिर सादि और अनादि दो प्रकार की निगोद पर्याय में पड़ा रहा, जहाँ केवल अक्षर के असंख्यातवें भाग जितना ही ज्ञान था अर्थात् शेष सारे ज्ञान पर/अनन्तज्ञान पर आवरण था।
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दौलत भजन सौरभ