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(८०) चेतन अब धरि सहजसमाधि, जातें यह विनशै भव ब्याधि॥टेक॥ मोह ठगौरी खायके रे, परको आपा जान। भूल निजातम ऋद्धिको तैं, पाये दुःख महान ॥१॥चेतन.।। सादि अनादि निगोद दोयमें, परयो कर्मवश जाय। श्वासउसासमँझार तहां भव, गं अठारह थायर जन कालअनन्त तहां यौँ वीत्यो, जब भइ मन्द कषाय । भूजल अनिल अनल पुन तरु है काल असंख्य गमाय ॥३॥ चेतन.॥ क्रमक्रम निकसि कठिन तैं पाई, शंखादिक परजाय। जल थल खचर होय अघ अने, तस वश श्वभ्र लहाय।।४॥चेतन.।। तित सागरलों बहु दुख पाये, निकस कबहुं नर थाय। गर्भ जन्मशिशु तरुणवृद्ध दुख, सहे कहे नहिं जाय ॥ ५॥ चेतन.॥ कबहूं किंचित पुण्यपाकतैं चउविधि देव कहाय । विषयआश मन त्रास लही तह, मरन समय विललाय।।६॥चेतन.।
यौं अपार भवखारवार में, भ्रम्यो अनन्ते काल । 'दौलत' अब निजभावनाव चढि, लै भवाब्धिकी पाल॥७॥चेतन.॥
हे चेतन! अब ऐसी सहज समाधि अर्थात् एकाग्रता को धारण करो जिससे यह संसार-भ्रमण की व्याधि छूट जाए, नष्ट हो जाए।
मोहरूप ठगिनी से ठगाया जाकर, सुधिबुधि भूलकर पर को ही अपना समझने लगा। अपनी आत्मा की शक्ति को भूल गया और इस कारण बहुत दु:ख पाए।
जीव सादि निगोद और अनादि निगोद में कर्मों के वश पड़ा रहा, वहाँ एक श्वास (नाड़ी की एक बार धड़कन) में अठारह बार जन्म-मरण करता रहा।
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दौलत भजन सौरभ