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वहाँ अनन्त काल इसी प्रकार बीत गये, फिर जब कषायों में कुछ मन्दता, कमी आई तब पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पतिकायिक होकर असंख्यात
काल तक भ्रमण करता रहा।
फिर वहाँ से निकलकर क्रम से दो इंद्रिय शंखादिकी पर्याय पाई और फिर जल-थल - नभवासी होकर बहुत पापार्जन किया, जिसके कारण नरकगामी हुआ।
वहाँ बहुत सागरपर्यन्त दुःख पाया, फिर किसी प्रकार वहाँ से निकलकर कहीं मनुष्य भव पाया, जहाँ गर्भ, जन्म, बचपन, यौवन व वृद्धावस्था में अनेक दुःख पाये, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
फिर कुछ पुण्य कर्मों के फलस्वरूप चारों देव निकाय भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष और वैमानिक में उत्पन्न होकर देव कहलाया, जहाँ विषयों की आशा ही मन को सदैव दुःखी करती रही और मरण-समय पर्याय-वियोग (देव- पर्याय छूटने के कारण बहुत दुःखी हुआ ।
इस प्रकार संसार सागर के खारेज में भ्रषण करता रहा । दौलतराम कहते हैं कि अब तो तू अपने निज स्वरूप को सँभाल कर, निज - भाव अर्थात् स्व- भावरूपी नाव में बैठकर इस संसार समुद्र का किनारा पकड़ ले।
दौलत भजन सौरभ
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