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यह देह संसार की सभी वस्तुओं को अपवित्र करनेवाली है ; पसीना, चर्बी, कफ, मवाद से भरी अभिमानरूपी विषैले सर्प की पिटारी है।
इसके संयोग से भव--भ्रमणरूपी रोग पलता है और इसके वियोग से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है । हे ज्ञानी, यह दह मूखंजनों का प्यारा है, ने विधको है, तू इससे किसी प्रकार का मोह मत कर। ___जिन्होंने इसका पोषण किया वे दोष के भागी, दोष को पनपानेवाले हुए और उन्होंने अत्यंत दुःख पाए और जिनने तप-ध्यान के द्वारा इसे सुखा डाला उन्होंने मोक्ष का वरण किया। ___ जिस प्रकार इन्द्रधनुष, शरद ऋतु के बादल और पानी के बुलबुले तुरंत ही मिट जाते हैं वैसे ही यह देह भी शीघ्र नष्ट हो जाती है इसलिए अपने चेतनआत्मा से इसे भिन्न जानकर समता को धारण करो।
अस्थिमाल = हाड़-हड्डियों की माल; पल-नसाजाल = मांस- नसों का समूह; पुतली = हरिणों को फंसाने के लिए उपयोग की जानेवालो पुतली के समानः पुरोष - विष्ठा, मल; स्वेद - पसीना; क्लेद - दुःख; शोषी = शोषण किया; सुरधनु = इन्द्रधनुष; शम = समता, शांति ।
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दौलत भजन सौरभ