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मत राचो धीधारी, भव रंभथंभसम जानके॥टेक॥ इन्द्रजालको ख्याल मोह ठग, विभ्रमपास पसारी। चहुंगति विपत्तिमयी जामें जन "भपत भरत तुम्हा भारी : !! मत.!! रामा मा, मा वामा, सुत पितु, सुता श्वसा, अवतारी। को अचंभ जहां आप आपके, पुत्र दशा विसतारी॥२॥ मत.॥ घोर नरक दुख ओर न छोर न, लेश न सुख विस्तारी। सुरनर प्रचुर विषयजुर जारे, को सुखिया संसारी॥३॥ मत.॥ मंडल है आखंडल छिन में, नृप कृमि सधन भिखारी। जा सुत विरह मरी है वायिनि, ता सुत देह विदारी॥४॥ मत.॥ शिशु न हिताहितज्ञान तरुण उर, मदनदहन पर जारी। वृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी॥५॥ मत.॥ यौँ असार लख छार भव्य झट, भये मोखमगचारी। यातें होउ उदास 'दौल' अब, भज जिनपति जगतारी॥६॥मत.॥
हे बुद्धिमान ! इस जीवन को केले के थंभ (स्तंभ) के समान नि:सार व नश्वर जानकर इसमें अनुरक्त मत होओ।
इस मोहरूपी ठग ने इन्द्रजाल की भाँति विभ्रम का जाल चारों ओर फैला रखा है जिसमें चारों गतियाँ अति दुःख से भरी हुई हैं और यह जीव इसमें भटक रहा है, भारी दुःख उठा रहा है।
उस भवरूपी नदी में कभी माता, कभी स्त्री, कभी पुत्र, कभी पिता, कभी बेटी, कभी बहन होकर जन्मे हैं, वहाँ क्या आश्चर्य है कि अपने ही कुटुम्ब/ पुत्र - संतति का विस्तार हुआ है ( अर्थात् अपने ही परिवार में पुन:जन्म ले लिया हो)। दौलत भजन सौरभ
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