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(८९) मत कीज्यौ जी यारी, घिनगेह देह जड़ जान के ॥ टेक॥ मात-तात रज-वीरजसौं यह, उपजी मलफुलवारी। अस्थिमाल पलनसाजाल की, लाल लाल जलक्यारी॥१॥ मत.॥ कर्मकुरंगथलीपुतली यह, मूत्रपुरीषभंडारी। चर्ममंडी रिपुकर्मघड़ी धन, धर्म चुरावन-हारी॥२॥मत.॥ जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन सर्व निगारी। स्वेदमेदकफक्लेदमयी बहु, मदगदव्यालपिटारी॥३॥मत.॥ जा संयोग रोगभव तौलौं, जा वियोग शिवकारी। बुध तासौं न ममत्व करें यह, मूढमतिनको प्यारी॥ ४॥मत.।। जिन योषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी। जिन तपठान ध्यानकर शोषी, तिन परनी शिवनारी॥५॥ मत.॥ सुरधनु शरदजलद जलबुदबुद, त्यौं झट विनशनहारी। यातै भिन्न जान निज चेतन, 'दौल' होहु शमधारी॥६॥मत.॥
हे जीव ! इस घिनौनी देह को जड़-पुद्गल जानकरके इससे मित्रता मत करो, अपनापन मत करो।
यह मैल की फुलवारी काया माता-पिता के रज और वीर्य के संयोग से उत्पन्न हुई है। यह रक्तरंजित - खून से सनी, हाड़-मांस और नसों के जाल से वेष्ठित देह है। ___ यह देह हरिण (जीव) को फंसाने के लिए लगे जाल (पुतली) के समान है, मल-मूत्र का भंडार/स्थान है । कर्मों को घड़नेवाली यह चमड़े से ढकी काया धर्मरूपी धन को चुरानेवाली है अर्थात् निज स्वरूप से विमुख करानेवाली है ।
दौलत भजन सौरभ
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