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(८४) मेरे कब कै वा दिन की सुघरी ।। टेक॥ तन विन वसन असनविन बनमें, निवसों नासादृष्टिधरी॥ पुण्यपापपरसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरी। तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिममेघझरी ॥१॥ कब थिरजोग धरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरी। ध्यान-कमान तान अनुभव-शर, छेदों किहि दिन मोह अरी॥२॥ कब तुनकंचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी। 'दौलत' सत गुरुचरन सेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ।।३।।
मेरे कब उस दिन का सुघड़ी अर्थात् शुभमुहूर्त आवं, अब में नम दिगम्बर होकर अर्थात् सब वस्त्र छोड़कर बिना किसी भोजन के वन में रहूँ अर्थात् नासादृष्टि लगाकर साधना करूँ।
जड़ से, पुण्य-पाप से कब विरक्त होऊँ और अपनी निधि को, आत्मा को जिसे दीर्घकाल से भुला रखा है उसे जानूँ अर्थात् उससे परिचय करूँ। सब प्रकार की उपाधि को छोड़कर सहज समाधि में लीन होऊँ और गर्मी, सर्दी व वर्षा की झड़ी की तीव्रता को सहन करूँ।
कब ऐसे योग-साधना में मैं स्थिर होऊँ कि शरीर की (पाषाण की-सी) निश्चलता को देखकर भोले हरिण अपनी देह की खुजली के निवारण के लिए पाषाण समझकर अपना शरीर खुजाने लगें। ध्यान की कमान तानकर, अनुभवरूपी बाण से मोह-शत्रु का छेदन करूँ।।
कब ऐसी समझ होवे कि तिनका और स्वर्ण-मणिजड़ित महल व पर्वत की कंदराओं को समान, एक-सा समझू । दौलतराम कहते हैं कि सत्गुरु के चरणों की सेवा करो, भक्ति करो जिससे यह आशा पूरी हो जावे। विरमो - विरक्त होना, परनो - परिचित होना, मणिजड़ितालय = रलजड़ित महल, शैलदरी - पर्वत को कंदरा1
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दौलत भजन सौरभ