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जिनेन्द्र के इन वचनों पर जब बार-बार विभिन्न नय-पक्षी द्वारा चितन किया जाता है तब शरीर व आस्मस्वरूप की भिन्न प्रतीति होती है और धर्म में रुचि बढ़ती है, वैराग्य उत्पन्न होने लगता है।
यह जीव - पुद्गल से तन्मय होकर हेय और अहेय (उपादेय) का भेद नहीं कर पाता (अग्नि व ईधन का योग एक उत्तम योग माना जाता है, स्वामियोग माना जाता है । इसमें जो कुछ भी डालो सब अग्निमय हो जाता है इसलिए), जैसे ईंधन और आग दोनों एकमेक हो जाते हैं ऐसा ही योग वह जोव व पुद्गल का समझने लगता है।
नाव के भँवर में से निकलते ही वांछित (इच्छित, चाहा हुआ) तट निकट प्रतीत होने लगता है, निकट आ जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेषरूपी भंवर से निकलते हो अर्थात् राग-द्वेष का नाश होते ही, मोक्ष का तट समीप ही लगता है, आ जाता है।
जैसे उजाला होते ही रस्सी को साँप समझे रहने की भाँति मिट जाती है उसी प्रकार 'स्व' का बोध/उजाला होते ही मैं सदा सुखमय हूँ, मैं अजीव नहीं हूँ, ऐसा ज्ञान हो जाता है।
दौलतराम कहते हैं कि अपने कल्याण के लिए श्री जिनेन्द्र के गुणों का चिंतवन सूर्योदय के पूर्व पौ फटने के जैसा एक अवसर है जो भाग्यवश उपलब्ध हुआ है।
धृत - धारण करना; सुनैन = नय सहित; निवेदगुण = धार्मिकता, धनंजय = अग्नि; स्वामियोग - उत्तम योग, जिसमें सब कुछ स्वामिपय हो जाता है; अल्प 'पूर्व = पौ फटने का समय।
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दौलत भजन सौरभ