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अज्ञानी के तो उनके आचरण द्वारा कर्म जो भव-भ्रमण के, संसार के कारण हैं, जल्दी-जल्दी बँधते जाते हैं किन्तु चिन्मूरत/चैतन्य आत्मा नारकी, पशु, स्त्री, नपुंसक पर्यायों में और दो-तीन- चार इंद्रिय होकर तिर्यंच गतियों में घूमता हुआ भी, गमन करता हुआ भी अपनी कर्म-प्रकृतियों को परस्पर (संक्रमण, उत्कर्षण व अपकर्षण करके) काटता रहता है, उनका नाश करता रहता है।
जो संयम धारण नहीं कर पा रहा, परंतु फिर भी उसे संयम धारण करने की उत्सुकता है, लगन है; दौलतराम कहते हैं, उसे चाहिए कि वह निरंतर आपके आत्मा के गुण और सुयश को रटते रहें, निरंतर गाते रहें।
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षंड = नपुंसक; सदन निवासी = गृहस्थ ।
महाक मा विजयी रहम'
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दौलत भजन सौरभ