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चिमूरत दृग्धारीकी मोहे, रीति लगत है अटापटी॥टेक॥ वाहिर नारकिकृत दुख भोगै, अंतर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, घरनतिः नित हटाहटी॥१॥ ज्ञानविरागशक्ति से विधि-फल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदननिवासी तदपि उदासी, ताः आस्त्रब छटाछटी॥२॥ जे भवहेतु अबुधके ते तस, करते बन्धकी झटाझटी। नारक पशु तिय षंढ विकलत्रय, प्रकृतिन की है कटाकटी ॥३॥ संयम धर न सके पै संयम, धारकी उर चटाचटी। तासु सुयश गुनकी 'दौलतके' लगी, रहै नित रटारटी॥४॥
यह चैतन्य मूर्ति/चैतन्य आत्मा (जिसे अपने स्वरूप का आभास हो गया है) दृष्टा है, देखने-जाननेवाला है। इसकी कार्य-प्रणाली, काम करने का तरीका अटपटा-सा लगता है।
बाहर देह संबंधी दुःख जो नारकियों के दुःख के समान हैं, उनको भोगता हुआ भी, वह अपने अंतरात्मा में सुखानुभूति करता हैं, सुख को निरंतर पीता हैं, गटकता है । अनेक देवताओं के साथ बाहर रंगरेलियाँ करते हुए भी उन सब बाह्य क्रियाकलापों से अलग होने की क्रिया करता है अर्थात् स्व और पर का स्पष्ट भेद-चिंतन करता है। उस चेतन मूरत की रीति अटपटी लगती है। ___ ज्ञान और वैराग्य के बल (शक्ति) से वह कर्मफल को बिना किसी लगाव के भोगता है और कर्मों का क्षय करता हुआ उन्हें कम करता जाता है । यद्यपि वह गृहस्थी है, घर में रहता है तो भी वह उदास है, विरक्त है और इस प्रकार आस्रव (कर्मों के आने) को, उसकी छटा को अलग कर रहा है, छाँट रहा है । उस चेतन मूरत को रोति अटपटी लगती है।
दौलत भजन सौरभ
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