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(७६) आप भ्रमविनाश आप आप जान पायौ, कर्णधृत सुवर्ण जिमि चितार चैन थायौ। आप.॥ मेरो मन तनमय, तन मेरो मैं तनको त्रिकार मैं कुबोध गश, सुबोधभान जायौ ॥ १।। आप.॥ यह सुजैनवैन ऐन, चिंतन पुनि पुनि सुनैन, प्रगटो अब भेद निज, निवेदगुन बढायौ ॥२॥ आप.॥ यौं ही चित अचित मिश्र, ज्ञेय ना अहेय हेय, इंधन धनंजय जैसे, स्वामियोग गायौ ॥३॥आप. ।। भंवर पोत छुटत झटति, बांछित तट निकटत जिमि, रागरुख हर जिय, शिवतट निकटायौ ॥४॥आफ.॥ विमल सौख्यमय सदीव, मैं हूँ मैं नहिं अजीव, द्योत होत रज्जु में, भुजंग भय भगायो॥५॥आप.॥ यौँ ही जिनचंद सुगुन, चिंतत परमारथ गुन, 'दौल' भाग जागो जब, अल्पपूर्व आयौ॥६ ।। आप. ।।
अपने भ्रम का, अपने संदेह का नाश करने पर ही मैं अपने आपको जान पाया हूँ, इससे मैं अत्यन्त सन्तुष्ट/प्रसन्न हूँ, जैसे कानों से आत्मसात किये हुए! धारण किये हुए (सुने हुए) स्वर्ण को प्रत्यक्ष देखकर सन्तोष मिलता हैं अर्थात् अब तक जिसे सुनकर जाना था अब उसे प्रत्यक्ष देखकर/अनुभवकर चित्त में संतोष व प्रसन्नता होती है। ___ यह शरीर मेरा है, और सदा ही मैं इस तन का हूँ - ऐसी एकाग्रता/तन्मयता है जो कि मिथ्या है, जब यह मिथ्याज्ञान टूट जाता है तब ज्ञानरूपी सूर्य का उदय होता है।
दौलत भजन सौरभ
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