Book Title: Daulat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 132
________________ (७४) आतम रूप अनूपम अद्भुत, याहि लखें भव सिंधु तरो ॥ टेक ॥ अल्पकाल में भरत चक्रधर, निज आतमको ध्याय खरो । केवलज्ञान पाय भवि बोधे, ततछिन पायौं लोकशिरो ॥ १ ॥ या बिन समुझे द्रव्य - लिंगिमुनि, उग्र तपनकर नवग्रीवकपर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णवमाहिं भार सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार पूरव शिवको गये जाहिं अब फिर जैहैं, यह नियत कोटि ग्रन्थको सार यही हैं, 'दौल' ध्याय अपने आत्मकी, ये ही जिनवानी भुक्तिरमा तब वेग भरो। परो ॥ २ ॥ नरो । करो ॥ ३ ॥ उचरो । ११० बरो ॥ ४ ॥ आत्मा का स्वरूप अनुपम है, अद्भुत है; इसका ही चिंतवन कर इस संसार - सागर से तिर जाओ, पार हो जाओ। भरत चक्रवर्ती ने अपनी शुद्ध आत्मा का चिंतवन कर केवलज्ञान प्राप्त किया और भव्यजनों को संबोधकर थोड़े समय में ही मोक्षगामी हो गए। इसके (आत्मा के ) स्वरूप को समझे बिना, द्रव्यलिंगी मुनि घोर तप कर के भी कर्मों का बोझ ही बढ़ाते हैं, कर्म-निर्जरा नहीं कर पाते। वे नव ग्रैवेयक तक जाकर भी इस संसार - समुद्र में पड़े रहते हैं अर्थात् भव- भ्रमण करते रहते हैं । जो अब तक मोक्ष को गए हैं; जा रहे हैं व जाएँगे उन्होंने निश्चितरूप से यह जान लिया है और बताया है कि इस जगत में सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्र और तप ही अत्यन्त सारवान है और यह ही करोड़ों ग्रंथों का सार है। जिनवाणी यह ही, इस तथ्य का ही वर्णन करती है। दौलतराम कहते हैं कि अपनी आत्मा का ध्यान करो तब ही शीघ्रता से मोक्ष - लक्ष्मी का वरण हो सकेगा। लोक- सिरो = मोक्ष, सिद्धशिला; नियत निश्चितः नशे = बहुत, नर- पुरुष तीव्र धोर दौलत भजन सौरभ "

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