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(७३) जय श्री वीरजिन वीरजिन वीरजिनचंद,
कलुषनिकंद मुनिहृदसुखकंद॥जय श्री.॥ सिद्धारथनंद त्रिभुवनको दिनेन्द्रचन्द्र
आपकिन प्रगति ॥१॥जय श्री. ।। जाके पद अरविन्द सेवत सुरेन्द्र वृंद,
जाके गुण रटत कटत भवफंद॥२॥जय श्री. ।। जाको शान्ति मुद्रा निरखत हरखत रिखि,
___ जाके अनुभवत लहत चिदानन्द।। ३॥जय श्री.॥ जाके घातिकर्म विधटन प्रघटत भये,
अनन्तदरसबोधवीरज आनन्द ॥४॥जय श्री.॥ लोकालोकज्ञाता पैं स्वभावरत राता प्रभु,
जगको कुशलदाता त्राता पै अद्वंद ।।५॥जय श्री. ।। जाकी महिमा अपार गणी न सकै उचार,
'दौलत' नमत सुख चहत अमंद ।। ६ ॥ जय श्री.॥
हे श्री महावीर जिनेन्द्र, आपकी जय हो! हे श्री वीर जिनेशा -- आप पापसमूह का नाश करने व मुनिजनों के हृदयों को सुख पहुँचानेवाले पिंड हो! हे सिद्धार्थ राजा के पुत्र ! सूर्य व चन्द्र की किरणों के समान प्रसारित - फैलनेवाली आपकी दिव्य ध्वनि जग के लिए/तीन लोक के भ्रमरूपी अंधकार का नाश करनेवाली हैं।
इंद्रादि का समूह जिनके चरणकमल की भक्ति करता है अर्थात् जो इन्द्रादि देवगणों द्वारा पूजित हैं । जिनके गुण-चितवन से संसार के बंधन कट जाते हैं उन महावीर जिनेन्द्र की जय हो।
दौलस भजन सौरभ