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(७१) हमारी वीर हरो भवपीर । टेक.॥ मैं दुख-तपित दयामृतसर तुम, लखि आयो तुम तीर। तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोहदवानलनीर ॥१॥हमारी. ॥ तुम विनहेत जगतउपकारी शुद्ध चिदानंद धीर। गनपतिज्ञान-समुद्र न लंघे, तुम गुनसिंधु गहीर॥२॥ हमारी. ॥ याद नहीं मैं विपति सही जो, धर-धर अमित शरीर। तुम गुन-चिंतत नशत तथा भय, ज्यों घन चलत समीर॥३॥हमारी. ।। कोटवारकी अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर। हरहु वेदनाफन्द 'दौलको', कतर कर्म जंजीर॥४॥ हमारी ॥
हे भगवान महावीर ! हमारी भव-पीड़ा (संसार-भ्रमण की पीड़ा) का हरण करो। ___ मैं दु:खों से तप रहा हूँ, आप दयारूपी अमृत के सागर हैं, यह देखकर आपके पास - तट के पास आया हूँ। आप परमेश्वर हैं, मोक्ष-पथ को दिखानेवाले हैं, मोहरूपी अग्नि का शमन करने के लिए नीर हैं, जल हैं। ___ आप बिना किसी प्रयोजन के - बिना हेतु के जगत का उपकार करनेवाले हैं, शुद्ध आत्मानंद हैं, धैर्यवान हैं । आप गुणों के इतने गहन, गहरे समुद्र हैं कि गणधर का ज्ञान भी उनको लाँधने में; उनका पार पाने में असमर्थ है।
मैंने बार-बार अनेक बार सुंदर देह धारण करके अगणित दुःख सहे । आपके गुणों के चितवन से सारे भय उसी प्रकार विघट जाते हैं जैसे तेज पवन के झौंकों से बादल बिखर जाते हैं।
अनेक बार की, भाँति-भाँति की मेरी अरज-विनती यही है कि अब मैं दुःख सहते-सहते अधीर हो गया हूँ। दौलतराम कहते हैं कि मेरे कर्मों की जंजीर को काटकर मेरे इस दुःखजाल का हरण करो।
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दौलत भजन सौरभ