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(३०) जय जय जग-भरम-तिमिर, हरन जिन धुनि॥टेक॥ या बिन समुझे, अजौं न, सौंज निज मुनी। यह लखि हम निजपर अविवेकता लुनी॥१॥जय जय.॥ जाको गनराज अंग, पूर्वमय चुनी। सोई रलही है हु सान्द, दुख बहु मुनी ॥२॥ जय जय.।। जे चर जड भये पीय, मोह बारुनी। तत्त्व पाय चेते जिन, थिर सुचित सुनी ।। ३ ।। जय जय.॥ कर्ममल पखारनेहि, विमल सुरधुनी। तज विलंब अब करो, 'दौल' उर पुनी ॥ ४॥ जय जय.॥
जगत के भ्रमरूपी अंधकार को हरनेवाली, जिनेन्द्र के मुख से निकली दिव्यध्वनि की जय हो - जय हो।
जिसको समझे बिना अब तक, मुनियों को भी अपनी सामर्थ्य/शक्ति का, स्वरूप का ज्ञान न हो सका। इसे समझकर अब स्व-पर के भेदज्ञान बिना हुआ हमारा अविवेक नष्ट होने लगा है।
गणधरदेव ने जिसकी रचना अंग और पूर्व में की, जिसे कुन्दकुन्द आदि प्रमुख मुनियों ने अपने मुख से कही है उस दिव्यध्वनि की जय हो।
मोहरूपी वारुणी (मदिरा) पीकर जो चेतन जड़रूप हो रहे थे, वे इस तत्व को, दिव्यध्वनि को पाकर सचेत हो गए और स्थिर चित्त होकर सुनने लगे।
कर्ममल को धोने के लिए है यह विमल दिव्यध्वनि। दौलतराम कहते हैं कि अब विलम्ब छोड़कर इसे हृदय में धारण करो।
अजौं = अब तक; सौंज : सामर्थ्य, शक्ति; लुनी = तैयार फसल काटना।
दौलत भजन सौरभ
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