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का/संसार-भ्रमण का अंत हो जाता है, नाश हो जाता है। हे पृथ्वीपालक ! आपकी सघन गुणों की माला को जो हृदय में धारण करते हैं वे भी अल्पकाल में ही आपके समान श्रेष्ठता को प्राप्त होते हैं ।
हे गुणों के स्तूप ! आपका रूप निरखने के लिए इन्द्र ने विक्रिया से सहस्र नेत्र बनाए, फिर भी उसे तृप्ति नहीं हुई, उसका मन नहीं भरा। जिनके भवों का नाश हो चुका अर्थात् जो अब पुनः जन्म नहीं लेंगे, देह रहित होंगे, उनने व्रत धारणकर, घरबार आदि सब परिग्रह छोड़ दिए व असहनीय सब परीषहों को ग्रहण किया।
जिन्हें केवलज्ञान होने पर, सारे लोक को सन्मुख रखे हुए (पदार्थ) के समान देखा, निश्चय व व्यवहार का उपदेश दिया, जिससे भ्रमरूपी अंधकार का नाश हुआ । कीचक जैसे नीच को मृत्यु से रहितकर, उसकी भव-श्रृंखला का नाश कर दिया। दौलतराम कहते हैं कि हमें भी अब आप अपने समीप ले लो अर्थात् हमारी भी संसार में रहने की स्थिति समाप्त हो ।
मान, पन-लपत्र पाँच जीभवाला;
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शत सुरप = सौ इन्द्र; कंदर्प - कामदेव, दर्प पंचानन = सिंह तूप स्तूप, खम्भा नाकप - इन्द्र अज - जिसका जन्म न हो, जन्मरहितः अकल - देहरहित; कुगह खोटा घर अख्यो = उपदेश दिया; भ्रम तम झपन = भ्रमरूपी अंधकार की झपझपाहट ।
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दौलत भजन सौरभ