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आपके अनन्त गुणरूपी मणियों को गणधर भी नित्य-प्रति गिन-गिनकर थक गए हैं, हार गए हैं। केवललब्धि से सुशोभित ऐसे प्रभु के चरण मोक्ष-लक्ष्मी के भण्डार हैं।
जिनके ध्यानरूपी खड़ग/तलवार से राग-द्वेष का नाश होता है, शल्य मिटती है, समता होती है। जो भव-बाधा के हरनेवाले, मोक्षलक्ष्मी को देनेवाले हैं, दौलाभिनयवल हाटड़क सगी बन्दा को हैं।
विधि - कर्म; भाकर = सूर्य, दुधिधधर्म - निश्चय व व्यवहार धर्म, मुनि व गृहस्थ धर्म; सुरसिद्धि - स्वर्ग - मोक्ष; थाक रहे - थक गए। दौलत भजन सौरभ
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