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जय शिव - कामिनि - कन्त वीर, भगवन्त अनन्तसुखाकर हैं । भ्रमतमभञ्जन भाकर हैं ॥ जय. ॥ सो सुरसिद्धिरमाकर हैं ।
विधि - गिरि-गंजन बुधमनरंजन,
जिनउपदेश्यो दुविधधर्म जो,
भवि - उर - कुमुदनि मोदन भवतप, हरन अनूप निशाकर हैं ॥ १ ॥ जय. ॥
परम विराग हैं रातै
जन्तुरक्षाकार हैं।
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पै इन्द्र फणीन्द्र खगेन्द्र चन्द्र जग, -ठाकर ताके चाकर हैं ॥ २ ॥ जय. ॥
जासु अनन्त सुगुनमणिगन नित, गनत गनीगन थाक रहें । जा प्रभुपद नवकेवलिलब्धि सु, कमलाको कमलाकर हैं ।। ३ ।। जय ॥ जाके ध्यान - कृपान रागरुष, यासहरन समताकर हैं । 'दौल' नमै कर जोर हरन भव बाधा शिवराधाकर हैं ॥ ४ ॥ जय. ॥
हे मोक्ष - लक्ष्मी के स्वामी भगवान महावीर ! आपकी जय हो, आप अनन्त सुखों की खान हैं। आप कर्मरूपी पर्वत को ढहा देनेवाले, बुद्धिमानजनों के मन को भानेवाले, भ्रमरूपी अंधकार का नाश करनेवाले सूर्य के समान हैं।
आपने गृहस्थ धर्म व मुनि धर्म दोनों धर्मों का उपदेश दिया है, जिससे स्वर्ग व मोक्षरूपी लक्ष्मी की सिद्धि होती है, प्राप्ति होती है। आप भव्यजनों के हृदयरूपी कमल-पुष्पों को विकसित करने के लिए तथा भव-दुख के संताप से छुटकारा दिलाकर उनका हरणकर, प्रसन्नता प्रदान करनेवाले चंद्रमा के समान हैं।
आप परम विरागी हैं, निःस्पृही हैं; फिर भी जगत के सभी प्राणियों का कल्याण करनेवाले रक्षा करनेवाले हैं । इन्द्र, नागेन्द्र, खगेन्द्र,
चन्द्रमा, नरेन्द्र
आदि सारा जगत आपका सेवक है।
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दौलत भजन सौरभ