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(६६) पास अनादि अविद्या मेरी, हरन पास परमेशा है। चिद्विलास सुखराशप्रकाशवितरन त्रिभोन - दिनेशा है।। दुर्निवार कंदर्पसर्पको दर्पविदरन खगेशा है। दुठ-शठ-कमठ-उपद्रवप्रलयसमीर - सुवर्णनगेशा है॥१॥ ज्ञान अनन्त अनन्त दर्श बल, सुख अनन्त पदमेशा है। स्वानुभूति-रमनी-बर भवि-भव-गिर-पवि शिव-सदमेशा है॥२॥ ऋषि मुनि यति अनगार सदा तिस, सेवत पादकुशेसा है। बदनचन्द्र झरै गिरामृत, नाशन जन्म-कलेशा है॥३॥ नाम मंत्र जे जपैं भव्य तिन, अघअहि नशत अशेषा है। सुर अहमिन्द्र खगेन्द्र चन्द्र है, अनुक्रम होहिं जिनेशा है॥४॥ लोक-अलोक-ज्ञेय-ज्ञायक पै, रति निजभावचिदेशा है। रागविना सेवकजन-तारक, मारक मोह न द्वेषा है॥५॥ भद्रसमुद्र-विवर्द्धन अद्भुत, पूरनचन्द्र सुवेशा है। 'दौल' नमै पद तासु, जासु, शिवथल समेदअचलेशा है॥६॥
हे पाश्वनाथ ! आप अनादि से चले आ रहे मेरे अज्ञान के बंधन, अज्ञान की शल्य को हरनेवाले परमेश्वर हैं ! आप स्व-रूपचिंतन के प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाले सूर्य हैं। ___ आप कामदेवरूपी सर्प, जिससे बचना कठिन है, के विष-मद का विदारण करनेवाले गरुड़ पक्षी के समान हैं । आप दुष्ट च कुटिल कमठ के उपसर्ग के समय प्रलयकाल के झंझावात को सहन करनेवाले सुमेरु के समान हैं।
आप अनन्त चतुष्टय - दर्शन, ज्ञान, सुख और बलरूपी लक्ष्मी के धारी हैं, लक्ष्मी के स्वामी हैं । चैतन्य-अनुभूतिरूपी स्त्री के आप स्वामी हो। भव्यजनों के लिए भवरूपी संसाररूपी पहाड़ पर गिरनेवाली गाज-बिजली हो। दौलत भजन सौरभ