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(३३) सुन जिन वैन, श्रवन सुख पायौ ॥टेक॥ नस्यौ तत्त्व दुर अभिनिवेश तम, स्याद उजास कहायौ।
चिर विसर्यो लह्यौ आतम रैन॥१॥श्रवन.॥ दह्यौ अनादि असंजम दवतै, लहि व्रत सुधा सिरायो
धीर धरी मन जीतन मन ।। २ ।। श्रवन. ।। भरो विभाव अभाव सकल अब, सकल रूप चित लायौ।
हास लौ अब अभिजत जैन ।। ३॥ श्रवन.॥
श्री जिनेन्द्र के कर्णप्रिय वचन सुनकर अत्यन्त सुख प्राप्त हुआ।
तत्त्वज्ञान के ऊपर पापरूपी आवरण के कारण जो अंधकार था, वह स्याद्वादरूपी प्रकाश से नष्ट हो गया है और आत्मा में अनादि से विस्मृत दिन का। प्रकाश का प्रादुर्भाव हुआ है।
असंयम के कारण अनादि से जो विषय-कषाय की आग दहक रही थी वह व्रत-संयमरूपी जल से शान्त होने लगी है और मन में धैर्य होने से मन पर विजय होने लगी है।
अब समस्त विभावों का अभाव होकर अपने स्वरूप में चित्त लगने लगा है और इस दास को शाश्वत जैन मार्ग की दिशा प्राप्त हुई है।
दौलत भजन सौरभ