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निरख सखि ऋषिनको ईश यह ऋषभ जिन, परखिके स्वपर परसोंज छारी। नैन नासाग्र धरि मैन विनसायकर, मौनजुत स्वास दिशि सुरभिकारी॥ निरख.॥ धरासमक्षांतियुत नरामरखचरनुत, वियुत्तरागादिमद
दुरितहारी। जास क्रमपास भ्रमनाश पंचास्य मृग, वासकरि प्रीतिकी रीति धारी॥१॥निरख.॥ ध्यानदवमाहि विधिदारु प्रजराहिं सिर, केशशुभ जिमि धुआँ दिशि विथारी । फँसे जगपंक जनरंक तिन काढने, किधौं जगनाह यह बांह सारी॥२॥निरख.॥ तप्त हाटकवरन वसन विन आभरन, खरे थिर न्यौँ शिखर मेरुकारी। 'दौलको' दैन शिवधौल जगमौल जे, तिन्हैं कर जोर वन्दन हमारी॥३॥ निरख.॥
हे सखी! मुनियों के नाथ - ऋषभ जिनेश्वर को देखो, उनके दर्शन करो जिनने स्त्र-पर का भेद समझकर पर परिणतियों को त्याग दिया है । नासिका के
अग्रभाग पर दृष्टि स्थिरकर कामदेव का, कामनाओं का नाशकर मौन धारण किया हैं। जिनके श्वास से दिशाएँ सुगंधित हो रही हैं।
पृथ्वी के समान क्षमाशील, जिनके चरणों में मनुष्य, देव और विद्याधर नत हो रहे हैं, वे राग, द्वेष, मद आदि से रहित पापों का हरण करनेवाले हैं।
दौलत भजन सौरभ
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