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चमर दुराए और शेष इन्द्र जय-जयकार करते हुए नभ-मार्ग से चले और सुमेरु पर पहुंचे, पांडु शिला पर श्री जिनेन्द्र को बिराजमान कर इन्द्राणी ने नृत्य किया
और दुंदुभि आदि अनेक बाजों का नाद हुआ। ___तब इन्द्र ने श्री जिनेन्द्र को नहलाने का शुभ विचार किया और सुवर्ण-कलशों में देवों से हाथोंहाथ क्षीरोदधि से जल मंगवाया। कलशों का मुँह एक योजन, उदर चार योजन तथा गहराई आठ योजन प्रमाण थी। ऐसे एक हजार आठ कलशों को श्री जिनेन्द्र के मस्तक पर उडेल कर समर्पित करते हुए अभिषेक (न्हवन) किए और चारों ओर जय-जय ध्वनि गूंज उठी।
तत्पश्चात इंदाणी ने जिनेन्द्र के गात (शरीर) का दिव्य भंगार किया, देवांगनाएँ मंगल गीत गाने लगीं। फिर पहले की भाँति ही क्रम से वापस प्रयाण किया और उन्हें पिता के घर ले आए जहाँ मणि- रत्नों से पूरे हुए आँगन में स्वर्ण के सिंहासन पर श्री जिनेन्द्र को विराजमान किया और इन्द्र ने सारे समाज के बीच अत्यंत शोभायमान तांडव/नृत्य किया। ___ इन्द्र ने भगवान के पिता को संतुष्ट करते हुए बालक के शान्तिनाथ नाम की घोषणा की/शांतिनाथ नामकरण किया। राजा ने भी पुत्र-जन्म का उत्सव मनोहारी ढंग से मनाया। इस प्रकार अपने-अपने नियोगों का निर्वाहकर - निभाकर पूर्ण करते हुए सुरगण व अन्य सभी जन अपने-अपने स्थानों को लौट गए। ऐसे तीर्थकर, चक्रवर्ती व कामदेव, तीन पदवियों के धारक भगवान शान्तिनाथ के सुन्दर चरणों की शरण में दौलतराम सदैव जय-जयकार करते हैं।
विश्वसेन व ऐरादेवी - भगवान शान्तिनाथ के पिता व माता; नाग - हस्ति, हाथो; नागपुर = हस्तिनापुर; जिनभव मंगल - जिनेन्द्र का जन्मोत्सव; नाग • कुबेर; रद - दाँत; गोप = गुप्त रूप से; गोप-तिय = इन्द्राणी; वंक = टेढ़ा, वक्र; लंक = कमर; ढिग - समीप द्वितीय व तृतीय इन्द्र = सनत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र; शेषशक = शेष सब इन्द्र; सुराचल - सुमेरु: वदन - कलश, पूरबली = पूर्व की/पहले की भाँति त्रिपद = तीर्थकर, चक्रवर्ती व कामदेव - ये तीन पदधारी; तांडव = पुरुषों द्वारा किया जानेवाला उन्माद नृत्य।
दौलत भजन सौरभ