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(५९) कुंथुनके प्रतिपाल कुंथ जग, - तार सारगुनधारक हैं। वर्जितग्रन्थ कुपंथवितर्जित, अर्जितपंथ अमारक हैं॥टेक ॥ जाकी समवसरन बहिरंग,-रमा गनधार अपार कहैं। सम्यग्दर्शन-बोध-चरण-अध्यात्म-रमा-भरभारक हैं॥१॥ दशधा-धर्म पोतकर भव्यन,-को भवसागर तारक हैं। वरसमाधि-वन-घन विभावरज, पुंजनिकुंजनिवारक हैं॥२॥ जासु ज्ञाननभ में अलोकजुत-लोक यथा इक तारक हैं। जासु ध्यान हस्तावलम्ब दुख-कूपविरूप-उधारक हैं॥३॥ तज छखंडकमला प्रभु अमला, तपकमला आगारक हैं। द्वादशसभा-सरोजसूर भ्रम,-तरुअंकूर उपारक हैं॥४॥ गुणअनंत कहि लहत अंत को? सुरगुरुसे बुध हारक हैं। नमें दौल' हे कृपाकंद, भवद्वंद टार बहुबार कहैं ॥५॥
भगवान कुंथुनाथ ! कुंथु जैसे छोटे-छोटे सभी जीवों के रक्षक अर्थात् समस्त जीव समूह की रक्षा करनेवाले हैं। आप जगत से तारनेवाले और गुणों के सार को धारण करनेवाले हो। कपंथ का ज्ञान देनेवाले ग्रन्थों को त्यागने और अहिंसा के मार्ग का प्रतिपाद न करनेवाले हो।
जिनके समवसरणरूपी बाह्य वैभव-लक्ष्मी का वर्णन अपार है, जिनका वर्णन गणधरदेव करते हैं। आप अंतरंग से सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और अध्यात्म के वैभव से भरपूर हैं।
दशधर्म रूपी जहाज के द्वारा आप भव्यजनों को संसार-समुद्र से तारनेवाले हैं। समाधिरूपी गहनवन को ग्रहणकर, विभाव से भरे जंगल से बाहर निकालनेवाले हैं अर्थात् विभाव से छुड़ानेवाले हैं।
दौलत भजन सौरभ