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फिर हरिनारि सिंगार स्वामितन, जजे सुरा जस गाये। पूरवली - विधिकर पयान मुद, ठान पिता घर लाये। मणिमय आँगनमें कनकासन, पै श्रीजिन पधराये। तांडव नृत्य कियो सुरनायक, शोभा सकल समाजै॥६।। वारी । फिर हरि जगगुरुपितर तोष शान्तेश घोष जिननामा। पुत्र-जन्म उत्साह नगर में, कियौ भूप अभिरामा। साध सकल निजनिजनियोग सुर, असुर गये निजधामा। त्रिपादनाती जिनसागर की, 'बौला' कराइ सदा जै॥७॥वारी.॥
इस शुभ सजावट/साज-सज्जा पर बलिहारी हैं, बधाई हो। विश्वसेन व .ऐरादेवी के निवास पर (भगवान शान्तिनाथ के जन्म पर) मंगलकारी उत्सव हो रहा है।
सभी इन्द्र अपने वैभवसहित हस्तिनापुर आए हैं, और इन्द्र की आज्ञा से कुबेर भी ऐरावत बनाकर सज-धजकर वहाँ आया है; एक लाख योजन में ऐरावत के एक सौ आठ सैंड के प्रत्येक दाँत पर एक-एक सरोवर में सौ-सौ पत्तों के बीच कमल खिले हुए हैं और कमल की एक-एक पत्ती पर एक सौ आठ सुन्दर देवांगनाओं के दल बने हुए हैं, जो सब मिल कर सत्ताईस कोटि हैं, वे सब मुदित होकर मनोहारी नृत्य कर रही हैं । नव प्रकार के थाटों की राग-रागनियों में गाकर उस उपवन में वे अत्यंत सुख उपजा रही हैं । वे भौति भाँति के हाव-भावसहित, कभी वक्र होकर, कभी कमर लचकाकर बिजली की-सी द्रुतगति से नृत्य कर रही हैं। इन्द्राणी गुप्तरूप से प्रसूतिगृह में अन्दर जाकर बालक की स्तुति करती है, माता को माया से सखनिद्रा में सुलाकर उन्हें नमनकर गोद में बालक को उठाती है और दिक् कन्याएँ, देवियाँ आगे होकर अष्ट मंगल द्रव्य लेकर चलती हैं । तीर्थकर बालक के सुन्दर व मनोहारी रूप को देखने हेतु इन्द्र एक हजार नेत्र बनाकर निहारता है।
फिर उस ऐरावत हाथी पर प्रथम स्वर्ग के इन्द्र ने श्री जिनेन्द्र को विराजमान किया, दूसरे ऐशान इन्द्र ने छत्र किया, सानत्कुमार व माहेन्द्र ने तुरिय आदि सहित दौलत भजन सौरभ