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(५३) चलि सखि देखन नाभिरायघर, नाचत हरि नटवा। अद्भुत ताल मान शुभलययुत, चवत राग षटवा ।। चलि.।। मनिमय नूपुरादिभूषन-दुति, युत सुरंग पटवा। हरिकर नखन नखनपै सुरतिय, पगफेरत कटवा ॥१॥ चलि.॥ किन्नर करधर बीन बजावत, लावत लय झटवा। 'दौलत' ताहि लखें चख तृपते, सूझत शिववटवा।।२॥चलि.॥
अरी सखि! नाभिराजा के घर चल, जहाँ इन्द्र भी ऋषभ-जन्मोत्सव के कारण नट की भाँति नृत्य कर रहा है, प्रसन हो रहा है । वहाँ अद्भुत ताल का मान रखकर (अद्भुत ताल पर) उपयुक्त शुभ लय में छहों राग गायी जा रही हैं।
वहाँ इन्द्र सुन्दर मणियुक्त, चमकदार वस्त्र, नूपुर आदि धारण किए हुए हैं जिसके हाथ के प्रत्येक नख के पौरचे पर देवियाँ थिरक-थिरक कर, कमर लचका कर नृत्य कर रही हैं।
किन्नर हाथों में बीन लेकर बजा रहे हैं और उसकी लय में संगत कर रहे हैं । दौलतराम कहते हैं कि उसे देखकर नेत्र तृप्त हो जाते हैं और मोक्षमार्ग दिखाई देने लगता है।
नरवा = नर; चवत = गाते हैं; षटवा - छहों राग; पटवा = वस्त्र; करवा = कमर, चख = नेत्र; वटवा = मार्ग।
दौलत भजन सौरभ