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जिनके चरणों के समीप जाने से भ्रम का नाश होता है; सिंह और मृग भी जाति-विरोध छोड़कर प्रेम से रहने लगे हैं । मुनियों के स्वामी उन ऋषभ जिनेश्वर के दर्शन करो।
जिन्होंने ध्यानाग्नि में कर्मरूपी ईधन को जला दिया है। उनके केश (सिर क बाल) ऐसे सुशोभित हो रहे हैं कि मानो ध्यानाग्नि का धुआँ उठकर चारों दिशाओं में फैल रहा हो। वह धुआँ ऐसा लग रहा है मानो इस जगतरूपी कीचड़ में फँसे नि:सहाय जन को बाहर निकालने के लिए जगत के नाथ ने अपनी बाहें पसारी हों।
तपे हुए स्वर्ण के समान, वस्त्र व आभूषणरहित नग्न दिगम्बर वेष में जो मेरु के समान स्थिर होकर खड़े हैं। वे जगत के मुकुट दौलतराम को निर्मल मोक्ष के दाता हैं, मोक्ष देनेवाले हैं। उनको हाथ जोड़कर हम वन्दना करते हैं।
सोज = विचार, परिणति, क्षाति = क्षमा; मैन = काम; खचर = विद्याधर: वियुत = रहित दुरित = पाप; क्रम - चरण; पंचास्य = सिंह; विधिदारु = कर्मरूपी ईधन; निथारी - विस्तारी; हाटक = स्वर्ग; धौल - धवल, स्वच्छ = सफेद।
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दौलत भजन सौरभ