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जिनवानी जान सुजान रे ॥ टेक ॥
लाग रही चिर विभावता, ताको कर अवसान रे ॥ जिनवानी ॥
( ३६ )
द्रव्य क्षेत्र अरु काल भावकी, कथनीको पहिचान रे ।
जाहि पिछाने स्वपरभेद सब जाने परत निदान रे ॥ १ ॥ जिनवानी. ॥
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पूरब जिन जानी तिनहीने, मानी संसृतिवान रे ।
अब जानै अरु जानेंगे जे, ते पावैं शिवभान रे ॥ २ ॥ जिनवानी ॥
कह 'तुषमाष' सुनी शिवभूती, पायो केवलज्ञान रे। याँ लखि 'दौलत' सतत करो भवि, चिद्ववचनामृतपान रे॥ ३ ॥ जिनवानी ॥
हे सज्जन चित्त ! जिनेन्द्र की वाणी को जानो, समझो। दीर्घकाल से विभावों के प्रति जो रुचि रही है उसका अब अन्त करदो ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार परिणमन को पहचानो, जिसको पहचानने पर स्व और पर का भेद गहराई से समझ में आता है।
पूर्व में भी जिन्होंने इस स्व- पर भेद को जाना, उन्होंने ही संसार को पहचाना और संसार में भ्रमण का/आवागमन का नाश किया। जो इस भेद को अब जान रहे हैं और जो आगे जानेंगे, वे भी आवागमन का नाशकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। तुष और माष- दाल और छिलके से भेदज्ञान कर शिवभूति मुनि मोक्षगामी हुए। यह देखकर दौलतराम कहते हैं कि हे भव्य ! चैतन्य के अमृतरूप वचन का निरन्तर पान करो, श्रद्धान करो, चिन्तन करो, मनन करो ।
रुचि ।
दौलत भजन सौरभ
लाग =
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