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(५०) भज ऋषिपति ऋषभेश, ताहि नित नमत अमर असुरा। मनमथमथ दरसावनशिवपथ, वृषरथचक्रधुरा। भज.॥ जा प्रभुगर्भछमासपूर्व सुर, करी सुवर्णधरा। जन्मत सुरगिरधरसुरगणयुत, हरि पय-न्हवन करा॥१॥भज.॥ नटत नृत्यकी विलय देख प्रभु, लहि विसग सु थिरा। तब हि देवऋषि आय नाय शिर, जिनपदपुष्प धरा ॥२॥भज.॥ केवलसमय जास वचरविने, जगभ्रमतिमिरहरा ! सुदृगबोधचारित्रपोतलहि, भवि भवसिंधुतस॥३॥भज.॥ योगसंहार निवार शेषविधि, निवसे वसुम धरा। 'दौलत' जे जाको जस गावे, ते है अज अमरा॥ ४॥ भज. ।।
हे प्राणी ! जिन्हें देव व असुर सभी नमन करते हैं, तू उन मुनियों के नाथ ऋषभ जिनेश्वर का नित्य भजन-स्मरण कर । काम-वासना को जीतकर जिन्होंने मोक्ष का मार्ग दिखाया है, जो धर्मरूपी रथ को चलानेवाले पहियों की धुरि हैं, आधार हैं।
उनके गर्भ में आने के छह माह पूर्व से इन्द्र ने पृथ्वी को सुवर्णमयी कर दिया अर्थात् रत्नों की वृष्टि होने लगी और जन्म होते ही सुमेरू पर्वत पर ले जाकर इन्द्र ने क्षीरोदधि के जल से उनका न्हवन किया। हे प्राणी ! उन ऋषभदेव को भज।
जिनको नीलांजना के नृत्य करते हुए जीवन-समाप्ति अर्थात् मरण को देखकर वैराग्य हो गया और वे उसमें स्थिर हो गए। तभी लौकान्तिक देवों ने आकर, शीश नवाकर स्तुति-वन्दन किया । हे प्राणी ! उन ऋषभदेव को भज ।
जिन्होंने केवलज्ञान होने पर दिव्यध्वनिरूपी सूर्य की किरणों से जगत को उपदेश देकर भ्रमरूपी अंधकार का विनाश किया। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
दौलत भजन सौरभ
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