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(४१) जय श्री ऋषभ जिनंदा! नाश तौ करो स्वामी मेरे दुखदंदा ॥टेक।। मातु मरुदेवी प्यारे, पिता नाभिके दुलारे, वंश तो इख्वाक, जैसे नभवीच चंदा ॥१॥जय श्री. ॥ कनक वरन तन, मोहत भविक जन, रवि शशि कोटि लाजै, लाजै मकरन्दा ।। २॥जय श्री.॥ दोष तौ अठारा नासे, गुन छियालीस भासे, अष्ट-कर्म काट स्वामी, भये निरफंदा॥३॥जय श्री. चार ज्ञानधारी गनी, पार नाहिं पावै मुनी, 'दौलत' नमत सुख चाहत अमंदा॥४॥जय श्री.॥
श्री ऋषभ जिनेन्द्र की जय हो। हे स्वामी ! मेरे दु:खों का नाश हो । आप माता मरुदेवी के प्यारे, पिता नाभिराय के दुलारे और इक्ष्वाकु नभ के मध्य उदित चन्द्रमा के समान हो।
स्वर्ण का-सा आपका गात (शरीर, देह) भक्तजनों के मन को मोह लेता है । करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश, पुष्यों की सुगंधित केसर व रस सभी उस रूप के समक्ष लज्जित होते हैं ; फीके लगते हैं।
अठारह दोषों को आपने नष्ट कर दिया है । अरहंत के छियालीस गुण प्रकट हो गए हैं। आप आठों कर्मों का नाश करके सारे फंदों से, उनकी उलझन, जकड़न व बंध से परे हो गए हैं, मुक्त हो गए हैं।
चारों ज्ञान के धारी गणधर व मुनिजन आपका पार नहीं पा सकते । दौलतराम कहते हैं कि मुझे उस सुख की प्राप्ति हो जो कभी मंद नहीं होता अर्थात् अक्षयसुख की प्राप्ति हो।
दौलत भजन सौरभ