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(४८) देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है ! कर ऊपरि कर सुभग विराजै. आप्पन शिर ठहराया है! टेक!। जगत-विभूति भूतिसम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभित श्वासा, आशा वासा, नासादृष्टि सुहाया है॥१॥ कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिर ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है॥२॥ शुध उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है॥३॥ जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन, तृन-मनिको सम भाया है। सुर नर नाग नमहिं पद जाकै, 'दौल' तास जस गाया है॥४॥
अरे देखो - भगवान आ िनाथ ने कैसा ध्यान लगाया है ! वे पद्मासन मुद्रा में, हाथ पर हाथ रखकर, स्थिर आसन से विराजमान हैं।
जगत के समस्त वैभव को जिनने धूलि . राख के समान समझकर त्याग दिया है और अपने ही आनन्द में, स्वरूपानन्द में मगन हैं, लीन हैं। दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं अर्थात् परम दिगम्बर वेष धारण किए हुए हैं, वे शांत व आनन्ददायक, सुगंधित व अतिमंद श्वासोश्वाससहित नाक के अग्रभाग पर दृष्टि जमाए हुए सुशोभित हैं।
स्वर्ण की-सी तप्त जिनकी सुंदर देह है ; मन अचंचल है, सुमेरु के समान स्थिर है; जिनके समीप सर्प और मोर, मृग और मृगराज (सिंह) अपना जातिगत विरोध भूलकर स्वच्छंद विचरण करते हैं।
चे शुद्ध आत्मध्यानरूपी अग्निकुंड में आठों कर्मरूप सामग्री की आहुति दे रहे हैं। उनके मस्तक पर बढ़ी काली केश-राशि ऐसे सुशोभित हो रही है मानो यज्ञकुंड से धुआँ ऊपर उठकर लहरा रहा हो।
दौलत भजन सौरभ