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(४६) धनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना॥ तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जानाधनि.॥ एकविहारी सकल ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना। सब सुखको परिहार सार सुख, जानि सगरुष भाना ॥१॥धनि. । चित्स्वभावको चिंत्य प्रान निज, विमल ज्ञानदृगलाना । 'दौल' कौन सुख जान लहयो तिन, करो शांतिरसपाना॥२॥धनि.॥
धन्य हैं वे मुनि जिनने यह भाव स्वीकार किया, माना-पहिचानना । जिनने देह की वांछित समाप्ति, जिसके पश्चात् पुन: देह धारण न करना पड़े, उसे अपना लक्ष्य माना, प्राप्ति मानी और पुण्य-उदय अर्थात् कम-शृंखला को दुःख स्वरूप जाना।
जिनने प्रभुता को त्यागकर, अकेले विचरने के अवसर को महोत्सव स्वरूप माना अर्थात् मुनि-दीक्षा धारण की और राग-द्वेष को समझकर, उनसे युक्त सब सांसारिक सुखों को छोड़ने में ही सुख का सार देखा, वे मुनि धन्य हैं।
जिनने चैतन्य स्वभाव का चिंतन कर अपने जीवन को सम्यक्दर्शन-ज्ञान से युक्त किया । दौलतराम कहते हैं कि शांति रस की प्राप्ति हेतु ऐसा कौनसा सुख है जो उनको प्राप्त नहीं हुआ हो।
दौलत भजन सौरभ