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(४५) धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिवओरनै॥ सम्यगदर्शनज्ञानचरननिधि, धरत हरत भ्रमचोरनै॥धनि.॥ यथाजातमुद्राजुत सुन्दर, सदन विजन गिरिकोरनै । तुन-कंचन अरि-स्वजन गिनत सम, निंदन और निहोरनै ।। १॥धनि.॥ भवसुख चाह सकन ताज वल सजि, करत द्विविध तप घोरने। परमविरागभाव पवितै नित, चूरत करम कठोरनै ।। २ ।। धनि. ॥ छीन शरीर न हीन चिदानन, मोहत मोहझकोरनै। जग-तप-हर भवि कुमुद निशाकर, मोदन 'दौल' चकोरनै॥३॥धनि.।।
__ वे मुनि धन्य हैं जिनको मोक्ष की लगन लगी है। वे रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र-रूपी निधि को धारण करते हैं जो संशयरूपी! भ्रमरूपी चोर को हरती है, उसका नाश कर देती है।
जो सुंदर, नग्न दिगम्बर मुद्रा को धारणकर निर्जन पहाड़ों की कन्दराओं में, कोनों में रहते हैं । जो तिनके और स्वर्ण में, शत्रु और आत्मीयजनों में, निंदक और प्रशंसक में समान भाव रखते हैं, वे मुनि धन्य हैं।
सब सांसारिक सुख की कामना छोड़कर, अपनी पूर्ण क्षमता के साथ आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार से घोर, कठिन तप की साधना करते हैं । निरासक्त, वैराग्य-भाव रूपी वज्र को धारण कर वे कठोर कर्मों को भी चूर कर देते हैं, नष्ट कर देते हैं, वे मुनि धन्य हैं।
यद्यपि उनका शरीर क्षीण हो गया है अर्थात् काया कृश हो गई है, फिर भी आत्मिक दृष्टि से किसी प्रकार की निर्बलता नहीं है और वे मोह को प्रचण्ड वायु झकोरे को भी मोह लेते हैं; रोक लेते हैं, उसका प्रतिघात सह लेते हैं । ऐसे जगत का ताप हरनेवाले, कुमुद को विकसित करनेवाले, चन्द्रमा के समान उन मुनि को देखकर चकोर की भाँति दौलतराम का चित्त भी प्रसन्न हो जाता है, मुदित हो जाता है। यथाजात मुद्रा - नग्न दिगम्बर होना, जैसी स्थिति/मुद्रा जन्म के समय होती है। निहोरने = प्रशंसक, पवि - वज्र। दौलत भजन सौरभ