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(४३) गुरु कहत सीख इमि बार बार, विषसम विषयनको टार टार॥टेक॥ इन सेवत अनादि दुख पायो, जनम मरन बहु धार धार॥१॥गुरु.॥ कर्माश्रित बाधा-जुत फांसी, बन्ध बढावन द्वंदकार॥२॥गुरु.॥ ये न इन्द्रके तृप्तिहेतु निः, तिस न बुझाबाद क्षारवार ॥३॥ गुरु.।। इनमें सुख कलपना अबुधके, बुधजन मानत दुख प्रचार॥४॥गुरु.॥ इन तजि ज्ञानपियूष चख्यौ तिन, 'दौल' लही भववार पार॥५॥ गुरु.॥
श्री गुरु बार-बार यह सीख देते हैं, उपदेश देते हैं कि विष के समान इन इंद्रिय-भोगों को तू दूर हटा दे, छोड़ दे।
इन विषय- भोगों को भोग-भोग कर, इन्हें मान्यता देकर अनेक बार तू जन्ममरण धारण करता रहा है।
इन कर्मों का आसरा/आधार लेकर दु:खसहित बंधन को, उलझनभरी जकड़न को कसता रहा, नवीन कर्म-बंध से पुष्ट करता रहा।
ये विषय-भोग इन्द्रियों को कभी तृप्त कर ही नहीं पाते, इंद्रिय-विषयों से कभी संतुष्टि नहीं होती, जिस प्रकार खारे जल से प्यास नहीं मिटती। - इनमें सुख की कल्पना करना बुद्धिहीनता है, अविवेक है । बुद्धिमान तो इनमें दुःख ही मानता है।
इनको छोड़कर जिसने ज्ञानामृत का पान किया, दौलतराम कहते हैं कि वह ही भवसागर के पार हो गया।
दौलत भजन सौरभ