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(४२) कबधौं मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदधि पारा हो॥टेक॥ भोगउदास जांग जिन लोनी, छोड परिग्रहभारा हो। इन्द्रिय दमन वमन मद कीनो, विषय कषाय निवारा झे॥१॥कबधों. ॥ कंचन काच बराबर जिनके, निंदक बंदक सारा हो। दुर्धर तप तपि सम्यक निज घर, मनवचतनकर धारा हो॥२।।कबधौं । ग्रीषम गिरि हिम सरितातीर, पावस तरुत्तल ठारा हो। करुणाभीन चीन त्रसथावर, ईपिंथ समारा हो॥३॥ कबधौं. ।। मार मार व्रत धार शील दृढ, मोह महामल टारा हो। मास छमास उपास वास वन, प्रासुक करत अहारा हो॥४॥कबधी.॥ आरतरौद्रलेश नहिं जिनके, धर्म शुकल चित धारा हो। ध्यानारूढ़ गूढ़ निज आतम, शुधउपयोग विचारा हो॥५॥कबधौं.॥ आप तरहिं औरनको तारहिं, भवजलसिंधु अपारा हो। 'दौलत' ऐसे जैन-जतिनको, नितप्रति धोक हमारा हो॥६॥ कबधी. ।।
वे मुनिवर मुझे कब मिलें जो मुझे इस संसारसमुद्र से पार लगा.दे। जिन्होंने भोगों से विरक्त होकर संन्यास ले लिया है और सारे परिग्रह के भार को छोड़ दिया है । इंद्रियों को वश में कर अहंकार का त्याग कर दिया है, जिन्होंने संयम का पालनकर, मान कषाय का नाशकर, इंद्रिय विषयों व कषायों को दूर कर दिया है, नष्ट कर दिया है, ऐसे मुनिवर मुझे कब मिलेंगे? ___ कंचन और काँच, निंदक और प्रशंसक, सब ही जिनके लिए एक-समान हैं । कठोर साधना- तपकर मन-वचन-कायसहित जो शुद्ध रूप में अपनी आत्मा में लीन हैं, साधनारत हैं, ऐसे मुनिवर मुझे कब मिलेंगे?
दौलत भजन सौरभ