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संसारी अवस्था में जो देह मिली है, उसके विषयों से विरक्त होकर जो नग्न दिगम्बर मुनि हो जावे और मोहनीय कर्म के विकारों से रहित अपनी आत्मा का! निजात्मा का चिंतन करे; उसकी अनुभूति/प्रतीति करे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा?
जो प्रमाद को छोड़कर स्थावर (एकेन्द्रिय) और त्रस (दो से पंचेन्द्रिय) जीवों की हिंसा से सदा बचे । राग-द्वेष के कारण कभी झूठ न बोले और बिना दिया हुआ किसी का एक तिनका भी ग्रहण न करे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा?
जो बाह्य में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे अर्थात् नारी-प्रसंग का त्याग करके अपने अन्तकरण से अपने चैतन्यगुणों में निमग्न होवे और पूर्णतया धर्म का साररूप अपरिग्रह अर्थात् बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार परिग्रह-रहितता का निर्वाह करे - पालन करे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा?
जो पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करते हुए आचरण का व्यवहाररूप पालन करे और फिर निश्चय से सभी कषायों को छोड़कर अपने शुद्ध आत्मध्यान में स्थिर हो, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा?
केशर या कीचड़, शत्रु और नौकर, मणि हो या तितका, साँप हो या माला, सब में समताभाव रखे। आर्त और रौद्र नाम के दोनों अपध्यान छोड़कर, धर्म और शुक्ल ध्यान को अपनावे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा?
उस अलौकिक सुख का अर्थात् जिसकी बाह्य व आन्तरिक महिमा का वर्णन करने में इन्द्र को भी आकुलता होती है अर्थात् इन्द्र भी उनके गुणों को पूर्णरूपेण कह नहीं सकता -- उनका वर्णन नहीं कर सकता। दौलतराम कहते हैं कि जो उनके चरणों की भक्ति करता है, सेवा करता है, वह स्थिररूप से ऋषियों को प्राप्त करता है, धारण करता है।
अभयपद = सब प्रकार के भयों से रहित पद अर्थात् मोक्ष ।
दौलत भजन सौरभ