________________
( ४१ )
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै॥ टेक ॥ संशय विभ्रम मोह-विवर्जित, स्वपरस्वरूप लखावै । लख परमातम चेतनको पुनि, कर्मकलंक मिटावै ॥ १ ॥ ऐसा ॥ भवतनयोगविरक्त होय तन, नग्न सुभेष बनावें । मोहविकार निवार निजातम- अनुभव में चित लावै ॥ २ ॥ ऐसा. ॥ त्रस - थावर- वध त्याग सदा, परमाददशा छिटकावै। रागादिकजण झूठ न था, पहु न अदत गहावै ॥ ३ ॥ ऐसा. ॥ चिदब्रह्म सुलीन रहावै । द्विविध प्रसंग बहावै ॥ ४ ॥ ऐसा. ।।
बाहिर नारि त्यागि अंतर, परमाकिंचन धर्मसार सो,
पंच समिति त्रय गुप्ति पाल, व्यवहार - चरनमग धावै । निश्चय सकलकषायरहित है, शुद्धातम थिर थावै ॥ ५ ॥ ऐसा ॥ कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्याल माल सम भावै । आरत रौद्र कुध्यान विडारे, धर्मशुकलको ध्यावै ॥ ६ ॥ ऐसा ॥ जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै । 'दौल' तासपद होय दास सो, अविचलऋद्धि लहावै ॥ ७ ॥ ऐसा. ॥
ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पायेगा अर्थात् भयरहित पद-मोक्ष पायेगा जिससे संसार में फिर उसका आवागमन नहीं होगा ।
जो संशय, विभ्रम और विमोह का नाशकर, अपना और अन्य के, स्व और पर के भेद-स्वरूप को स्पष्ट जाने व देखे । जो अपने परम आत्मरूप को पहचानकर आत्मा पर लगे कर्मरूपी कलंक को मिटा दे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा ?
दौलत भजन सौरभ
५७