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ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै ॥ टेक ॥ वीतरागसे देव छोड़कर, भैरव यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता तजि, हिंसा इन्द्रायनि वावै ॥ १ ॥ ऐसा. ॥
परिग्रही गुरु भावै ।
रुचै न गुरु निर्ग्रन्थ भेष बहु, परधन परतियको अभिलाषै अशन अशोधित खावै ॥ २ ॥ ऐसा. ॥
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परकी विभव देख हूँ सोगी, परदुख हरख लहावै । धर्म हेतु इक दाम न खरचं, उपवन लक्ष बहावै ॥ ३ ॥ ऐसा. ॥ ज्यों गृहमें संचै बहु अघ त्यों, वनहू में उपजावै । अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै ॥ ४ ॥ ऐसा. ॥ आरंभ तज शठ यंत्र मंत्र करि, जनपै पूज्य मनावै । धाम वाम तज दासी राखँ, बाहिर मढ़ी बनावै ॥१५ ॥ ऐसा. ॥ नाम धराय जती तपसी मन, विषयनिमें ललचावै । 'दौलत' सो अनन्त भव भटकै, ओरनको भटकावै ॥ ६ ॥ ऐसा. ॥
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मोह जाल में उलझे हुए जीव को जिनवाणी सुहावनी नहीं लगती, ऐसी दशा
में वह खोटी गति में क्यों नहीं/ कैसे नहीं जावेगा ? अर्थात् जिसे जिनवाणी रुचिकर नहीं लगती ऐसे मोही जीव की दुर्गति होती है।
जो वीतराग की भक्ति न कर भैरव, यक्ष अर्थात् क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि रागी देवों को प्रसन्न करने में लगा रहता है, वह करुणा की कल्पबेल को छोड़कर विषय और हिंसा रूपी कडुए इंद्रायण फल को बोता है, वह हिंसा आदि पापों में रत होता है जिसका फल दुखदायी होता है ।
जो निष्परिग्रही, निराडंबर साधुओं का सत्संग न कर उन साधुओं की संगत करता है जो स्वयं परिग्रही है और दूसरों के धन, स्त्री आदि पर ललचाता है,
दौलत भजन सौरभ
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