________________
(४४) जिन रागद्वेषत्यागा वह सतगुरु हमारा॥टेक ॥ तज राजरिद्ध तृणवत्त निज काज सँभारा।। जिन राग.।। रहता है वह वनखंड में, धरि ध्यान कुठारा। जिन मोह महा तरुको, जड़मूल उखारा ।। १। जिन राग.।। सर्वांग तज परिग्रह, दिगअंबर धारा। अनंतज्ञानगुनसमुद्र, चारित्र भंडारा॥२॥जिन राग.॥ शुक्लानिको प्रजालके, वसु कानन जारा। ऐसे गुरुको 'दौल' है, नमोऽस्तु हमारा ।। ३।। जिन राग.॥
जिन्होंने राग और द्वेष को छोड़ दिया, त्याग दिया वे ही हमारे पूज्य गुरु हैं, साधु हैं। जिन्होंने अपने राज-पाट व ऋद्धि को तिनके के समान छोड़ दिया और अपने आत्महित के लिए स्वरूप-चिंतन में लीन हो गये, जुट गये, वे ही हमारे गुरु हैं।
वे साधु जो जंगल में अपना निवास करते हैं और गहन व कठोर ध्यान में डूबते हैं । वे मोहरूपी वृक्ष को जड़ मूल से उखाड़ने को तत्पर हैं, वे ही हमारे
सब प्रकार का परिग्रह छोड़कर, दिगम्बर भेष जिनने धारण किया और जो अनंत ज्ञान-गुण के समुद्र हैं और अगाध चारित्र के भण्डार हैं, वे हमारे गुरु हैं।
त्रे शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि को जलाकर, आठ कर्मों के इस वन को जला रहे हैं । दौलतराम कहते हैं ऐसे साधुजन को हमारा नमन है।
दौलत भजन सौरभ