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(४७) धनि मुनि निज आतमहित कीना। भव प्रसार तन अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना॥ धनि.॥ एकविहारी परीगह छारी, परिसह सहत अरीना। पूरव तन तपसाधन मान न, लाज गनी परवीना॥१॥धनि.।। शून्य सदन गिर गहन गुफामें, पदमासन आसीना। परभावन” भिन्न आपपद, ध्यावत मोहविहीना ॥ २॥धनि.॥ स्वपरभेद जिनकी बुधि निजमें, पागी वाहि लगीना। 'दौल' तास पद बारिजरजसे, किस अश करे पछीना धनि. ।।
धन्य हैं वे मुनि जिन्होंने अपनी आत्मा का हित किया। यह संसार असार है। यह देह मैली है, स्वच्छ नहीं है, जिसमें इंद्रियों के विषय, उनकी चाह-तृष्णा विष के समान है; ऐसा विचार कर महाव्रत को धारण किया।
जो समस्त परिग्रह को छोड़कर अकेले ही विचरते हैं, शत्रु-सरीखे परीषहों को सहन करते हैं। पहले जो देह धारण की उसे अब तक तप का साधन नहीं समझा, चतुर-समर्थवान के लिए यह लज्जाजनक था; यह विचार कर पश्चात्ताप कर, प्रायश्चित्त किया, ऐसा माननेवाले साधु धन्य हैं।
जो सूने मकान में, पहाड़ों की गहरी गुफाओं में पद्मासन से विराजकर (बैठकर) मोह से रहित होकर यह ध्यान करते हैं कि सभी परभावों से भिन्न अपना आत्मा है, निजात्मा है।
जिनकी धारणा में, ज्ञान में स्व-पर का भेद स्पष्ट हो गया है और बुद्धि उसी में डूब रही है, उसी में रत है। दौलतराम कहते हैं कौन से पाप हैं जो उनके चरण-कमल की रज से दूर नहीं किए जा सकते?
अरीना - शत्रुसमान, गनी = धनवान, वाहि = ढोया हुआ।
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दौलत भजन सौरभ