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(३९) अब मोहि जानि परी, भवोदधि तारनको है जैन ॥टेक।। मोह तिमिर तैं सदा कालके, छाय रहे मेरे नैन । ताके नाशन हेत लियो, मैं अंजन जैन सु ऐन॥१॥अब. ॥ मिथ्यामती भेषको लेकर, भाषत हैं जो वैन।
सो वे बैन असार लखे मैं, ज्यों पानीके फैन ।। २॥अब.॥ मिथ्यामती वेल जग फैली, सो दुख फलकी दैन। सतगुरु भक्तिकुठार हाथ लै, छेद लियो अति चैन॥३।। अब.॥ जा बिन जीव सदैव कालतें, विधि वश सुखन लहै न। अशरन-शरन अभय 'दौलत' अब, भजो रैन दिन जैन॥४॥अब.॥
अब मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है, अनुभूति हुई है कि जैन अर्थात् जिनेन्द्र का मार्ग ही संसार-समुद्र से तारनेवाला है, पार उतारनेवाला है। ___मोहरूपी अंधकार सदा मेरे नयनों के आगे छाया रहा है, जिसका नाश करने के लिए मैंने अब यह जैन-मार्गरूपी अंजन उचित ही ग्रहण किया है।
झूठे मत-मतांतर को धारणकर जो उपदेश देते हैं, वे सब मुझे पानी के बुलबुले के समान असार-सारहीन दिखाई देते हैं।
झूठे मत-मतांतर की बेल जगत में फैल रही है, वे सब दुखदायी ही हैं। सत्गुरु की भक्तिरूपी कुठार हाथ में लेकर मैंने उनको उखाड़ दिया है, जिससे अत्यधिक चैन मिला है।
इस जिनेन्द्र मत के बिना जीव को कर्मवश कभी सुख की प्राप्ति नहीं हुई। जिसका कोई शरणदाता नहीं है - उसका शरणदाता यह 'जैन' मत है । अब निर्भय होकर रात-दिन जिनेन्द्र का भजन करो।
ऐन = ठीक।
दौलत भजन सौरभ