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(३१) थारा तो वैना में सरधान घणो छै, म्हारे छवि निरखत हिय सरसावै। तुमधुनिघन परचहन-दहनहर, वर समता-रस-झर वरसावै॥थारा.॥ रूपनिहारत ही बुधि है सो, निजपरचिह्न जुदे दरसावै । मैं चिदंक अकलंक अमल थिर, इन्द्रियसुखदुख जड़फरसावै ॥१॥ ज्ञान विरागसुगुनतुम तिनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै। मुनि बड़भाग लीन तिनमें नित, 'दौल' धवल उपयोग रसावै॥२॥
हे जिनेन्द्र ! मुझे आपकी दिव्यध्वनि के प्रति, आपके उपदेश के प्रति अत्यन्त श्रद्धान है। आपके दर्शनों से मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता है, भक्ति-आह्लाद से भर जाता है। आपकी दिव्यध्वनि उस मेघ के समान है जो पर की चाहरूपी अग्नि को बुझाकर श्रेष्ठ समतारूपी वर्षा की झड़ी बरसाती है।
आपकी मनोहर छवि के दर्शन करते ही निज और पर की स्पष्ट प्रतीति होती है, ज्ञान होता है, भिन्नता दिखाई देती हैं कि मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, कलंकरहित ब निर्मल हूँ, स्थिर हूँ ; इंद्रिय के सुख व दु:ख तो जड़ के परिणाम हैं, वे जड़ का ही स्पर्श करते हैं अर्थात् चैतन्य धरा को नहीं छू पाते । ।
आपके समान ज्ञान, वैराग्य और श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति हेतु इन्द्र भी ललचाता रहता है। वे मुनिजन अत्यन्त भाग्यशाली हैं जो उन गुणों में लीन रहते हैं और अपने उपयोग को निर्मल व शुद्ध रखते हैं, उसमें डूबे रहते हैं।
चहन - चाह; चिर्दक = चैतन्यस्वरूप।
दौलत भजन सौरभ