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(३४) जब” आनंदजननि दृष्टि परी माई। तबः संशय विमोह भरमतर विलाई। जबतें॥ मैं हूँ विजिल्ला स्तों, पर जताप, दोउनकी एकतासु, जानी दुखदाई॥१॥ जबत. ॥ रागादिक बंधहेत, बधन बहु विपति देत, संवर हित जान तासु, हेत ज्ञानताई॥२॥ जबते. ॥ सब सुखमय शिव है तसु, कारन विधिझारन इमि, तत्त्व की विचारन जिन-वानि सुधिकराई ॥३॥ जबतें. । विषयचाहज्वालते, दह्यो अनंतकालते, सुधांबुस्यात्पदांकगाह तें प्रशांति आई॥४॥जबतें. ॥ या विन जगजालमें, न शरन तीनकालमें, सम्हाल चित भजो सदीव, 'दौल' यह सुहाई॥५॥ जबत. ॥
जब से ये आनन्ददाता - आनन्द को जन्म देनेवाले विचार आए हैं, सोचने की स्पष्ट दिशा बनी है तब से संशय, विमोह और विभ्रम पिटने लगे हैं। ___ मैं चैतन्य हूँ, 'पर' से अर्थात् जड़-पुद्गल से भिन्न हूँ। किन्तु अब तक मैं दोनों को एक ही मानता रहा। अब जाना कि दु:ख का कारण यही है । राग आदि बंध के कारण हैं, उनके कारण हुए कर्मबंधन अत्यन्त विपत्तियों के देनेवाले हैं। उनको रोकने के लिए संवर का होना ही एकमात्र हित साधन है, इसका भान, इसका बोध ही ज्ञान है।
यह आत्मा आनन्द का भंडार है, आनन्दमय है । तत्वों के विचार से कर्मों की निर्जरा होती है। ऐसा बोध-स्मरण जिनवाणी के पढ़ने, सुनने, मनन करने से होता है।
दौलत भजन सौरभ