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सुधि लीज्यौ जी म्हारी, मोहि भवदुखदुखिया जानके ॥ टेक ॥ तीनलोकस्वामी नामी तुम, त्रिभुवन के दुःखहारी । गनधरादि तुम शरन लई लख, लीनी सरन तिहारी ॥ १ ॥ सुधि ॥ जो विधि अरि करी हमरी गति, सो तुम जानत सारी । याद किये दुख होत हिये ज्यौं, लागत कोट कटारी ॥ २ ॥ सुधि ॥ लब्धि- अपर्यापतनिगोद में, एक उसासमंझारी । जनममरन नवदुगुन विधाकी, कथा न जात उचारी ॥ ३ ॥ सुधि. ॥
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भू जल ज्वलन पवन प्रतेक तरु, विकलत्रयतनधारी । पंचेंद्री पशु नारक नर सुर, विपति भरी भयकारी ॥ ४ ॥ सुधि ॥
मोह महारिपु नेक न सुखमय हो न दई सुधि थारी । सो दुठ मंद भयौ भागनतैं, पाये तुम जगतारी ॥ ५ ॥ सुधि ॥ यद्यपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगटकरतारी | ज्यौं रविकिरन सहजमगदर्शक, यह निमित्त अनिवारी ॥ ६ ॥ सुधि ॥
नाग छाग गज बाघ भील दुठ, तारे अधम उधारी । सीस नवाय पुकारत अबके, 'दौल' अधमकी बारी ॥ ७ ॥ सुधि ॥
हे प्रभु! मुझे भव-भव का दुःखी जानकर अब तो मेरी सुधि लीजिए।
आप तीन लोक के स्वामी हैं। तीनों लोकों में आप ही दुःख के हरता हैं, दुःख हरनेवाले हैं। यह देखकर गणधर आदि ने भी आप की शरण ली है।
कर्म - शत्रुओं ने हमारी जो दुर्दशा की है उसे आप भली प्रकार जानते हैं, उस दुर्दशा के स्मरणमात्र से कटार से हुए अनेक घावों के समान पीड़ा होती है।
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दौलत भजन सौरभ