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हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिन जी, मो भवजलधि क्यों न तारत हो॥टेक।। अंजन कियौ निरंजन तातें, अधमउधार विरद धास्त हो। हरि वराह मर्कट झट तारे, मेरी वेर ढील पारत हो॥१॥ यौँ बहु अधम उधारे तुम तौ, मैं कहा अधम न मुहि टारत हो। तुमको करनो परत न कछु शिव, पथ लगाय भव्यनि तारत हो॥२॥ तुम छवि निरखत सहज टरै अघ, गुण चिंतत विधि-रज झारत हो। 'दौल' न और चहै मो दीजै, जैसी आप भावनारत हो॥३॥
हे तीन लोक को तारनेवाले! हे जिनेन्द्र ! भवसागर के मध्य पड़े हुए मुझको क्यों नहीं तारते हो, पार लगाते हो! ___ अंजन जैसे चोर-पापी को आपने दोषरहित कर दिया। आप अधर्मीजनों का, पापियों का उद्धार करनेवाले हो, ऐसी आपकी ख्याति है, प्रशंसा है, योग्यता है, गुण है । सिंह, शूकर, मगर आदि को आपने अविलम्ब तार दिया, फिर मेरी बार पर क्यों देर लगाते हो!
यों तो आपने बहुत से अधर्मियों को तार दिया, उनका उद्धार कर दिया, दु:खों से बाहर निकाल दिया, तो मैं ही ऐसा कैसा पापी-अधर्मी हो गया कि मुझको नहीं पार लगाते ! आपको स्वयं को उसमें कुछ भी नहीं करना पड़ता अर्थात् आप कुछ भी तो नहीं करते, मात्र भव्यजनों को मोक्षमार्ग पर लगा देते हो, उस राह पर आरूढ़ कर देते हो।
आपके दर्शन से सहज हो सब पाप टल जाते हैं, आपके गुणों के चितवन से कर्मरूपी रज, धूलि स्वयं ही झड़ जाती है । हे प्रभु! दौलतराम आपसे कुछ भी नहीं चाहते। आप और चाहे कुछ भी मत दीजिए, बस मात्र इतना हो कि मैं भी आपकी जैसी भावना में निरन्तर मगन हो जाऊं, रत हो जाऊँ।
दौलत भजन सौरभ