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(२७) नाथ मोहि तारत क्यों ना? क्या तकसीर हमारी?॥टेक ।। अंजन चोर महा अघकरता, सप्तविसनका धारी। वो ही मर सुरलोक गयो है, वाकी कछु न विचारी॥१॥ नाथ.॥ शूकर सिंह नकुल बानरसे, कौन कौन व्रतधारी? तिनकी करनी कछु न विचारी, वे भी भये सुर भारी॥२॥नाथ.॥ अष्टकर्म वैरी पूरबके, इन मो करी खुवारी। दर्शनज्ञानरतन हर लीने, दीने महादुख भारी॥३।। नाथ.!। अवगुण माफ करे प्रभु सबके, सबकी सुध न विसारी। 'दौलत' दास खड़ा करजोरे, तुम दाता मैं भिखारी॥४॥नाथ.॥
हे नाथ, मुझे क्यों नहीं पार लगाते हो, मेरा उद्धार क्यों नहीं करते हो, मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया?
सातों व्यसनों में रत रहनेवाला अंजन चोर जैसा महान पापी भी व्रत धारण करने से मरकर स्वर्ग में गया, उसके बारे में तो किसी भी प्रकार का कोई विचार नहीं किया !
सूअर, सिंह, नेवला, बंदर, वे कौन से व्रत के धारो थे ? उन्होंने क्या-क्या कर्म किए थे, उनका भी विचार नहीं किया और वे भी स्वर्गों में जाकर जन्मे।
पहले से बँधे हुए अष्टकर्मों ने मुझे अत्यन्त दु:खी किया हुआ है, मेरे दर्शनज्ञानरूपी रत्नों को इन्होंने मुझसे छीन लिया है और मुझे बहुत दुःख दिए हैं।
प्रभु! आप सबके दोषों को क्षमा करते हो, सबका कल्याण करते हो, उन्हें भूलते नहीं हो। दौलतराम आपके समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा है -- आप मुक्ति के दाता हैं और मैं याचक।
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दौलत भजन सौरभ