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मोहि तारो जी क्यों ना, तुम तारक त्रिजग त्रिकाल में ॥ टेक ॥ मैं भवउदधि पर्यो दुख भोग्यो, सो दुख जात कह्यौं ना । जामन मरन अनंततनो तुम, जानन माहिं छिप्यो ना ॥ १ ॥ मोहि ॥ विषय विरसरस विषम भख्यो मैं चख्यौ न ज्ञान सलोना । मेरी भूल मोहि दुख देवै कर्मनिमित्त भलौ ना ॥ २ ॥ मोहि. ।। तुम पदकंज धरे हिरदै जिन, सो भवताप तप्यौ ना । सुरगुरुहूके वचनकरनकर, तुम जसगगन नयाँ ना ॥ ३ ॥ मोहि ॥ कुगुरु कुदेव कुश्रुत सेये मैं तुम मत हृदय धर्यो ना । परम विराग ज्ञानमय तुम जाने विन काज सर्वौ ना ॥ ४ ॥ मोहि ॥ मो सम पतित न और दयानिधि, पतिततार तुम - सौ ना । 'दौलतनी' अरदास यही है, फिर भववास वसौं ना ॥ ५ ॥ मोहि ॥
तीनों कालों में तीनों लोकों में आप ही तारनेवाले हैं, आप मुझे क्यों नहीं तारते हैं !
मैं इस संसार समुद्र में पड़ा हूँ, मैंने बहुत दुःख भोगा है, जिनका अब कथन भी नहीं किया जा सकता। मैं अनन्त बार जन्म मरण कर चुका यह सब आपके ज्ञान में है, आपसे कुछ छुपा हुआ नहीं है।
मैंने विषम व विकारी रस से भरे विषयों का आस्वादन किया और करता ही रहा पर सलौने ज्ञान-विवेक का स्वाद कभी नहीं चखा। यह मेरी भूल, कर्मों का निमित्त पाकर अब मुझे हो दुःखकारी है, दुःख देनेवाली है।
जिन्होंने आपके चरण-कमलों को भावपूर्वक हृदय में धारण किया, वे भवसंसार के ताप से नहीं झुलसे। बृहस्पति के वचनों के द्वारा भी आपके यशरूपी आकाश के विस्तार को मापा नहीं जा सकता ।
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दौलत भजन सौरभ